नई दिल्ली। हर संडे जब भी कॉलम लिखने बैठती हूं, औरतों के बारे में सोचती हूं, तो सबसे पहले मां की याद आती है. हर दोपहर पापा का टिफिन तैयार होकर जाता. गरमागरम. हर दोपहर दादाजी और हम बच्चे लंच करने बैठते. मां किचन से गरम-गरम फुल्के निकालकर लातीं. दादाजी का नियम था, प्लेट में रोटी गरम-गरम आए. जब पिछली रोटी का आखिरी निवाला मुंह में जाए, तभी अगली रोटी आंच से उठाकर प्लेट में रखी जाए. जब दादाजी (और घर के बाकी लोग) खा चुकते, तब मां के खाने का नंबर आता.
कभी-कभी ऐसा दिन भी आता कि कोई अचानक घर पर टपक पड़ता या फिर घर के बाकी लोग ही ज्यादा खा लेते. खाना कम पड़ जाता. कभी दाल, कभी सब्जी. तो जो भी बचता, मां उसे खा लेती. पिछली रात के बचे हुए खाने के साथ. इसमें कोई बेचारगी नहीं रहती कि बचा-खुचा खाने को मिल रहा है. ये एक आदत सी थी. एक माना हुआ सच सा था कि मां को आखिर में ही खाना है.
मैं परिवारों के बीच ज्यादा नहीं रही हूं, पर शायद हर जॉइंट फैमिली में ऐसा ही होता होगा. कम से कम अपने रिश्तेदारों के बारे में तो कह ही सकती हूं कि बहुएं सबको खिलाकर खाने बैठती हैं. अपनी जानकारी में मैंने ऐसा कोई घर नहीं देखा, जहां मां की पसंद का खाना बनता हो. असल में मालूम ही नहीं होता कि मां की पसंद है क्या. क्योंकि, हर बार मम्मी बच्चों से ही आकर पूछती हैं, ‘क्या खाओगे’. जो बच्चे कहते हैं, वही बन जाता है. कभी सब्जियां न हों, तो परवल और लौकी भी बन जाते हैं. लेकिन, कभी यूं नहीं होता कि मां कहे, आज ‘मुझे’ राजमा खाने का मन है, राजमा बनाती हूं. या फिर पुरुष पत्नी से, या बच्चे मां से पूछें, ‘आज क्या खाने का मन है?’

हमारे घरों में खाना और उससे मिलने वाले पोषण का केंद्र कभी औरतें नहीं होतीं. दूध, मेवे और फल अगर घर में आते हैं, तो इसलिए कि बच्चे खाएंगे. अगर आपके घर में ऐसा होता है, तो आपको बधाई.
हमारे घरों में खाना और उससे मिलने वाले पोषण का केंद्र कभी औरतें नहीं होतीं. दूध, मेवे और फल अगर घर में आते हैं, तो इसलिए कि बच्चे खाएंगे. अगर आपके घर में ऐसा होता है, तो आपको बधाई.
लेकिन यहां बात सिर्फ परिवार के स्ट्रक्चर के अंदर औरत के स्थान की नहीं है. बात ये है कि औरतें अपनी हेल्थ के बारे में कितना और किस तरह सोचती हैं. जब सोचती हैं तो इसके मायने क्या होते हैं. क्या स्वस्थ रहना एक समाज के तौर पर हमारा और हमारी औरतों का लक्ष्य है? नहीं.
बीते दिनों अपने डॉक्टर से हुई एक रेगुलर सी मीटिंग में उसने मुझसे पूछा, ‘तुम्हारा वज़न तो नहीं बढ़ा है?’ मैंने कहा ‘हां, 2 किलो बढ़ गया है’. डॉक्टर का झट से जवाब आया, ‘वजन मत बढ़ने दो. ये लड़कियों की सेल्फ-एस्टीम के लिए बड़ा खराब होता है.’
सेल्फ एस्टीम. यानी खुद पर भरोसा. लड़कियों का वजन बढ़ने पर खुद पर भरोसा, खुद पर कॉन्फिडेंस क्यों टूटता है? इसलिए कि वो ‘अस्वस्थ’ हो जाएंगी? नहीं. बल्कि इसलिए कि वो भद्दी दिखेंगी.
मोटी लड़कियों को लेकर एक अजीब सी अस्वीकार्यता है लोगों के मन में. वजन ज्यादा होगा, तो अच्छी नहीं दिखोगी. वजन ज्यादा होगा, तो शादी नहीं होगी. वजन ज्यादा होगा, तो लोग हंसेंगे. कभी किसी को ये कहते नहीं सुना कि वजन ज्यादा होगा, तो हॉर्मोन्स पर फर्क पड़ेगा. पीरियड के साइकिल पर फर्क पड़ेगा, जिससे दिमाग पर असर पड़ेगा. वजन ज्यादा होगा, तो स्ट्रेस बढ़ेगा. शुगर बढ़ सकती है. ब्लड प्रेशर या दिल की तकलीफ हो सकती है. प्रेग्नेंसी में दिक्कतें आ सकती हैं. पीरियड या प्रेग्नेंसी के समय पाइल्स का खतरा हो सकता है.
और जो चुनिंदा लड़कियां फिटनेस को लेकर जागरूक रहती हैं, उनसे बार-बार पूछा जाता है, ‘तुम तो मोटी नहीं लगती, फिर जिम क्यों जाती हो?’ या फिर, ‘तुम्हें एक्सरसाइज की क्या जरूरत है?’ ‘तुम इतनी ओवरवेट तो नहीं लगतीं?’
पॉपुलर कल्चर (पढ़ें बॉलीवुड या मॉडलिंग) में अक्सर लड़कियों की फिटनेस को उनके दुबले होने से जोड़ा जाता है. जिम में घुसती हूं, तो चारों तरफ वॉलपेपर में एक्ट्रेसेस की तस्वीरें दिखती हैं. हेल्थ मैगज़ीनों के कवर पर एक्ट्रेसेस की तस्वीरें दिखती हैं. लड़कियों को बताया जाता है कि फलां एक्ट्रेस ने किस तरह एक महीने में या एक साल में इतने किलो घटा लिए. और देखो, अब वो कितनी सुंदर लगती हैं. ‘सुंदरता’ और ‘सेक्स अपील’ की इस दुनिया में कभी औरतों को इस बारे में नहीं बताया जाता कि वजन घटाने (या बढ़ाने) के टारगेट में उनकी सेहत में कितना सुधार हो गया. वजन घटाना एक कॉस्मेटिक की तरह है. इस्तेमाल करो और सुंदर हो जाओ.
कमाल की बात ये है कि जो लड़कियां अंडरवेट हैं, उनसे लोग कम ही पूछते हैं कि वजन बढ़ाने के बारे में क्या सोचा है. बल्कि हर दूसरी लड़की ये जरूर कह जाती हैं कि तुम्हारी पतली कमर देखकर जलन होती है. और अगर वजन बढ़ाने की सलाह मिलती भी है, तो ये कहकर कि इतनी दुबली लड़कियां मर्दों को अच्छी नहीं लगतीं. मर्दों को थोड़ा भरे शरीर वाली लड़कियां अच्छी लगती हैं. इस पूरी बातचीत में सेहत घास चरने चली जाती है. और मैं बात कर रही हूं पढ़ी-लिखी, औसत कमाई वाले घरों से आने वाली लड़कियों की.
हम एक अमीर देश नहीं हैं. लाखों बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, लेकिन सिर्फ बच्चे ही नहीं, उनकी मांएं भी कुपोषण का शिकार हैं. और इसीलिए बच्चे कमजोर पैदा होते हैं. ये बात है उस तबके की, जो पौष्टिक खाना अफोर्ड नहीं कर सकते. लेकिन जिस तबके के लोग घर में सुकून से दो वक़्त का खाना खा भी रहे हैं, वहां भी सारे पोषण का केंद्र या तो पुरुष हैं, या बच्चे. और अगर पिछड़ी मानसिकता वाले घरों की बात करें, तो बच्चों में भी महज लड़के.
ऐसे में हमारे कल्चर में शामिल व्रतों की परंपरा औरतों की सेहत में और चार-चांद लगा देती है. उन औरतों की, जिनके कमजोर कंधों पर सदियों की बेतुकी परम्पराओं को ढोने की जिम्मेदारी है.
थोड़ा दिमाग लगाकर सोचिए. आपके इस शरीर को, जो हर महीने खून बहाता है, जो बच्चे पैदा करने के पहले 9 महीने उन्हें पोषण देता है, जो मीनोपॉज के बाद कमजोर होने लगता है, उसे ‘परम्पराओं’ और ‘सुंदरता’ की जरूरत है,
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