इंदौर: बीएसएफ का इंदौर स्थित केंद्रीय आयुध और युद्ध कौशल विद्यालय (सीएसडब्ल्यूटी) शहीद क्रांतिकारी भगतसिंह की ऐतिहासिक महत्व की पिस्तौल को अपने नये हथियार संग्रहालय में खास तौर प्रदर्शित करने की योजना पर आगे बढ़ रहा है. यह वही पिस्तौल है जिसका इस्तेमाल करीब नौ दशक पहले तत्कालीन ब्रिटिश पुलिस अफसर जेपी सॉन्डर्स के वध में किया गया था.
नये संग्रहालय में रखी जाएगी पिस्टल
सीएसडब्ल्यूटी के महानिरीक्षक (आईजी) पंकज गूमर ने को बताया, ‘सांडर्स वध में इस्तेमाल भगतसिंह की पिस्तौल फिलहाल हमारे पुराने शस्त्र संग्रहालय में अन्य हथियारों के साथ प्रदर्शित की गयी है. लेकिन शहीदे-आजम के ऐतिहासिक हथियार को विशेष सम्मान देने के लिये हमारी योजना है कि इसे हमारे नये शस्त्र संग्रहालय में खासतौर पर प्रदर्शित किया जाये. हमारा नये संग्रहालय के अगले दो-तीन महीने में बनकर तैयार होने की उम्मीद है.’ उन्होंने योजना के हवाले से बताया कि बीएसएफ के नये शस्त्र संग्रहालय में भगतसिंह की पिस्तौल को प्रदर्शित करने के साथ ‘शहीदे-आजम’ की जीवन गाथा भी दर्शायी जायेगी, ताकि आम लोग देश की आजादी में उनके अमूल्य योगदान से अच्छी तरह परिचित हो सकें.
कोल्ट्स कंपनी ने बनाई थी पिस्टल
गूमर ने बताया कि .32 एमएम की यह सेमी ऑटोमेटिक पिस्तौल अमेरिकी हथियार निर्माता कम्पनी कोल्ट्स ने बनायी थी. इस पिस्तौल को सात अक्तूबर 1969 को सात अन्य हथियारों के साथ पंजाब की फिल्लौर स्थित पुलिस अकादमी से बीएसएफ के इंदौर स्थित सीएसडब्ल्यूटी भेज दिया गया था. इस पिस्तौल को दूसरे हथियारों के साथ बीएसएफ के शस्त्र संग्रहालय में रख दिया गया था. उन्होंने बताया कि भगत सिंह की विरासत को लेकर शोध कर रहे एक दल ने इस पिस्तौल के बारे में बीएसएफ के सीएसडब्ल्यूटी कार्यालय को पिछले साल सूचित किया. जब संबंधित ऐतिहासिक दस्तावेजों के आधार पर रिकॉर्ड की बारीकी से जांच की गयी तो आखिरकार तसदीक हो गयी कि यह भगतसिंह के कब्जे से बरामद वही पिस्तौल है जिसका इस्तेमाल सांडर्स वध में किया गया था.
सांडर्स का वध लाहौर में 17 दिसंबर 1928 को हुआ था
गूमर ने कहा कि इस पिस्तौल को संभवत: ब्रिटिश राज में ही लाहौर से पंजाब की फिल्लौर स्थित पुलिस अकादमी भेज दिया गया था. सांडर्स का वध लाहौर में 17 दिसंबर 1928 को गोली मारकर किया गया था. ‘लाहौर षड़यंत्र कांड’ के नाम से मशहूर मामले में भगतसिंह और दो अन्य क्रांतिकारियों शिवराम हरि राजगुर और सुखदेव थापर को दोषी करार देते हुए मृत्युदंड सुनाया गया था. तीनों क्रांतिकारियों को तत्कालीन लाहौर सेंट्रल जेल के शादमां चौक में 23 मार्च 1931 को फांसी पर लटकाया गया था.
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