
यह मंदिर पहाडिय़ों की तलहटी में बना है। इसके साथ एक कथा जुड़ी है। इतिहास के जानकारों के अनुसार, 1600 ई. में मंदिर का निर्माण राजा भोमपाल ने करवाया था। एक मान्यता के अनुसार, मंदिर में जिस देवी की पूजा की जाती है, वह कोई और नहीं, बल्कि वही कन्या है, जिसकी कंस हत्या करना चाहता था।
उसका नाम योगमाया था। उसने कंस को चेतावनी दी थी कि उसका अंत करने वाला प्रकट हो गया है तथा शीघ्र ही वह विनाश को प्राप्त होने वाला है। कालांतर में उसी कन्या का कैला देवी के रूप में पूजन प्रारंभ हो गया।
चमत्कारों की चर्चा
मां के चमत्कारों की शृंखला बहुत लंबी है। एक अन्य कथा के अनुसार, पहले इस इलाके में घने जंगल थे। उनमें एक भयानक राक्षस रहता था। उसका नाम नरकासुर था। उसने भयंकर आतंक मचाया। उसके अत्याचारों से परेशान लोगों ने मां दुर्गा से प्रार्थना की।
भक्तों की करुण पुकार पर मां प्रकट हुईं। उन्होंने अपनी शक्ति से नरकासुर का वध कर दिया। माता की वह शक्ति आज प्रतिमा में विराजमान है। पहले यह दिव्य प्रतिमा नगरकोट में स्थापित थी। जब अत्याचारी शासकों का जमाना आया तो वे मंदिरों को अपवित्र करने लगे।
तब मां के पुजारी योगिराज उनकी प्रतिमा मुकुंद दास खींची के यहां लेकर जाने लगे। वे मार्ग में रात्रि विश्राम के लिए रुके। निकट ही केदार गिरि बाबा की गुफा थी। उन्होंने देवी की प्रतिमा बैलगाड़ी से नीचे उतारी तथा बैलों को विश्राम के लिए छोड़ दिया। इसके बाद वे बाबा से मुलाकात करने चले गए।
दूसरे दिन जब वे आगे की यात्रा शुरू करने वाले थे, तब प्रतिमा उठाने लगे लेकिन वह अपनी जगह से नहीं हिली। काफी प्रयास के बाद भी जब वे प्रतिमा को उठा नहीं सके तो इसे देवी की इच्छा माना गया और उनकी सेवा-पूजा की जिम्मेदारी बाबा केदारगिरि को सौंप कर चले गए।
माता के प्रताप से यहां भक्तों के कार्य सिद्ध होने लगे। धीरे-धीरे यह चमत्कारी शक्तिपीठ अत्यंत प्रसिद्ध हो गया। आज यहां लाखों भक्त देवी की आराधना करने आते हैं। कहा जाता है कि इन्हीं में से एक भक्त बहुत समर्पित भाव से मां की सेवा करता था। एक बार वह किसी आवश्यक कार्य से बाहर गया और लौटा नहीं। देवी आज भी उसकी प्रतीक्षा कर रही हैं। यही कारण है कि उनकी दृष्टि भक्त को ढूंढती हुई प्रतीत होती है।
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