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जानिए :आखिर क्यों नहीं करनी चाहिए इंद्रदेव की पूजा ?

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# भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं से हर कोई वाकिफ है. अपने इन लीलाओं से उन्होंने देव, दानव और मनुष्य हर किसी को अचंभित किया है. ऐसी एक लीला उन्होंने मथुरा में दिखाई जब वह 15 साल के थे. 

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# दरअसल बचपन में जिस समुदाय में भगवान श्रीकृष्ण रहते थे वहां शुरू से ही हर साल बृजवासी इंद्रोत्सव बड़े ही धूमधाम से मनाया करते थे. इसमें वह इंद्रदेव को भगवान मानकर पूजा करते थे. वैसे इंद्रदेव को बिजली, गर्जना और वर्षा का देवता माना गया है.

# बृजवासी इस त्यौहार को मनाने के लिए कई तरह के अनुष्ठान करते थे. इस त्यौहार के दौरान एक बड़ा चढ़ावा अग्नि को समर्पित किया जाता था. अग्नि में हर तरह की चीजें चढ़ाई जाती थी जैसे बड़ी मात्रा में घी और दूध के अलावा तमाम अनाज और हर वह चीज, जो हमारी नजर में महत्वपूर्ण है.

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श्रीकृष्ण को जिम्मेदारी -


# जब श्रीकृष्ण 15 वर्ष के हुए तो उन्हें इंद्रोत्सव के आयोजन की जिम्मेदारी सौपी गई. इस आयोजन के लिए मुखिया बनने की जिम्मेदारी मिलना तक के समाज में एक बड़े सम्मान की बात थी. जिस व्यक्ति को यह जिम्मेदारी सौपी जाती थी उसे ‘यजमान’ कहा जाता था. लेकिन जब यह जिम्मेदारी गर्गाचार्य द्वारा श्रीकृष्ण को दी गए तो उन्होंने लेने से मना कर दिया.
“मैं यजमान नहीं बनना चाहता. मैं इस चढ़ावे के आयोजन में भाग नहीं लेना चाहता”.

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# यह सुनकर गर्गाचार्य दंग रह गए, क्योंकि कृष्ण की जगह अगर कोई और होता, तो उसने इस मौके को हाथोंहाथ लिया होता. आखिरकार यह एक ऐसी जिम्मेदारी थी, जो किसी की भी सामाजिक हैसियत को एकाएक बढ़ा सकती थी. जो कोई भी उस आयोजन का नेतृत्व करता था, अपने आप ही वह उस समाज का मुखिया हो जाता था. खैर, गर्गाचार्य ने जब कृष्ण से इसका कारण पूछा तो कृष्ण ने कहा, “मुझे नहीं लगता कि मैं इस काम के लिए सही व्यक्ति हूं. किसी और को यह जिम्मेदारी दी जाए तो अच्छा रहेगा”. 


# इस पर गर्गाचार्य ने कहा,  “नहीं, पिछले साल तुम्हारे बड़े भाई ने इसे किया था और अब तुम्हारे बारी है. अगर इस जिम्मेदारी को संभालने के लिए कोई सही व्यक्ति है, तो वह तुम हो. मुझे समझ नहीं आ रहा कि तुम इस जिम्मेदारी को लेने से मना क्यों कर रहे हो? आखिर तुम्हारे मन में क्या चल रहा है?”  अंत में कृष्ण ने कहा, “मैं इस पूरे आयोजन को ही पसंद नहीं करता”.

# इस पर गर्गाचार्य ने कहा “तुम कहना क्या चाहते हो कि तुम इस आयोजन को पसंद नहीं करते. यह एक महान कार्य है जिसे हजारों सालों से निभाया जा रहा है. वेदों में भी इस आयोजन के महत्व का वर्णन किया गया है. तुम कैसे कह सकते हो कि तुम्हें यह आयोजन पसंद नहीं है”? इसपर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा “ऐसे पूजा या अनुष्ठान का क्या मतलब जो किसी के डर की वजह से आयोजित की जा रहे हो. मैं ऐसे किसी भी कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेना चाहता जिसे लोग किसी देवता के डर से आयोजित करते हैं”. तब लोग इंद्र से बहुत डरते थे उन्हें लगता है कि अगर उन्होंने ऐसे चढ़ावों का आयोजन न किया तो इंद्र उन्हें दंड देंगे

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इंद्रोत्सव की जगह गोपोत्सव -

# श्रीकृष्ण ने कहा, “हमे इंद्रोत्सव की जगह गोपोत्सव का आयोजन करना चाहिए”. गोपोत्सव का मतलब है, ग्वालों का उत्सव. “उनका मानना था कि हमारे आस-पास जो भी चीजे हैं उनसे हम बहुत ही प्रेम करते है जैसे गायें, पेड़, गोवर्धन पर्वत (तब गोवर्धन पर्वत साल भर हरा घास, फल मूल एवं शीतलजल को प्रवाहित करता था). श्रीकृष्ण के शब्दों में “ये सब हमारी जिंदगी हैं. यही लोग, यही पेड़, यही जानवर, यही पर्वत तो हैं जो हमेशा हमारे साथ हैं और हमारा पालन पोषण करते हैं. इन्हीं की वजह से हमारी जिंदगी है. ऐसे में हम किसी ऐसे देवता की पूजा क्यों करें, जो हमें भय दिखाता है. मुझे किसी देवता का डर नहीं है. अगर हमें चढ़ावे और पूजा का आयोजन करना ही है तो अब हम गोपोत्सव मनाएंगे, इंद्रोत्सव नहीं”.
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# श्रीकृष्ण के बातो से गर्गाचार्य सहित कुछ लोग प्रभावित हुए लेकिन वहीं कुछ लोगों ने उनकी बातों का विरोध किया. उनका मानना था कि जो पूजा हजरों सालों से की जा रही है उसे अचानक कैसे खत्म किया जा सकता है, अगर ऐसा किया गया तो इंद्रदेव को क्रोध आ जाएगा और सबकुछ नष्ट हो जाएगा. लेकिन भगवान कृष्ण अपनी बात पर डटे रहे.  उन्होंने साफ कह दिया कि अगर मुझे ‘यजमान’ बनाना है तो आज से इंद्रोत्सव नहीं, गोपोत्सव मनेगा.
इंद्र का क्रोध -

# कुछ लोगों को छोड़कर लगभग सभी ने कृष्ण की बातों का समर्थन किया और धूमधाम से गोवर्धन पूजा शुरू हो गई. पूजा में भोग लगाए गए. जब इंद्र को इस बारे में पता चला, तो उन्होंने प्रलय कालीन बादलों को आदेश दिया कि ऐसी वर्षा करो कि ब्रजवासी डूब जाएं और मेरे पास क्षमा मांगने पर विवश हो जाएं. जब वर्षा नहीं थमी और ब्रजवासी कराहने लगे तो भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर धारण कर उसके नीचे ब्रजवासियों को बुला लिया. गोवर्धन पर्वत के नीचे आने पर ब्रजवासियों पर वर्षा और गर्जन का कोई असर नहीं हो रहा था. इससे इंद्र का अभिमान चूर हो गया.

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