loading...

भारतियों के लिए खुला पत्र : अब भी ना सुधरे तो बहुत देर ना हो जाए...

अपनी facebook सिरीज़ के तहत आज एक अहम मुद्दे को लेकर हम आपके सामने आए हैं । ये लेख राजनीति के बड़े जानकार और भारतीय इतिहास की गहरी समझ रखने वाले भाई पुष्कर अवस्थी जी ने अपनी वॉल पर शेयर किया है । इस लेखक की लेखनी और विचारों में इतनी नवीनता और इतना तेज़ है कि कोई भी बड़े से बड़ा बुधिजीवी इनको नकार नहीं सकता है । नीचे बोल्ड अक्षरों में पुष्कर जी का लेख ज्यूँ का त्युं दिया जा रहा है । लेख के अंत में उनका Facebook एड्रेस्स भी है ताकि आप उनसे जुड़ सकें ।
सृष्टि की रचना के बाद विश्व में स्थापित हुयी सभ्यताओं और नस्लो का पराभव और कालांतर में विलुप्त होजाना उनके इतिहास से जुड़ा होता है। कोई भी सभ्यता और नस्ल सिर्फ इसलिए समाप्त नही हुयी है कि उसका मुकाबला उससे उन्नत सभ्यता या नस्ल से हुआ था बल्कि इसलिए की उसने चलायमान समय से कुछ सीखा नही होता है। वह अपने भूतकाल के सुखों और कृतिम सुरक्षा के आवरण से आत्ममुग्ध हुए, वर्तमान को ही सत्य मान कर, भविष्य की आहुति दे देता है।
हम भारत के भारतीय इस, शाश्वत सत्य के अपवाद नही हो सकते है। हमने जो किया है और जो आज कर रहे है, उसको हम को ही भुगतना है। हम वह बेगैरत नस्ल है जो अपने ही ज्ञान और चातुर्य के अहम में, अपने अपने स्वार्थ और छद्म ईमानदारी की नई नई परिभाषायें गढ़ते हुए, यही गलतिया पिछले 2000 वर्षो से करते आरहे है।
हम आज सामाजिक विषमता के शिकार और 1000 वर्षो से गुलाम भी इसीलिए बने रहे है। जब जब समय ने हमारी नस्ल को यह मौका दिया है कि वह स्वार्थ और सुरक्षित सुख की बेड़ियों को काट, कष्टों को आलिंगन कर, नवीन भविष्य का निर्माण करे, तब तब यह नस्ल अपनों से ही हारी है। यह ऐसा नही है कि यह सब पहले था अब नही है। हकीकत यह है कि इतिहास में यह दर्ज है की 20वीं शताब्दी में भी, जब जब हमारी नस्लों में किसी ने, कष्टों की वेदी सजाई है तो लोग पुष्प लिए जरूर खड़े रहे है लेकिन जब उसमे आहुति देने में हाथ जलाने की बारी आई है तो उन्होंने अंतिम आहुति होने तक का इंतज़ार किया है।
यदि यह नही होता तो 1920 के दशक में बिस्मिल द्वारा जलायी गयी क्रांति की वेदी 1930 के दशक के शुरू में भगत सिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद की मौत पर बुझ क्यों जाती? आज हम उछल उछल कर इन वीरों का आवाहन करते है लेकिन जब यह क्रन्तिकारी पुरे चरम पर थे तब भारत में हमारे पुरखों में से सिर्फ 2000 से ज्यादा इन क्रांतिकारियों के साथ नही थे। इन सब क्रांतिकारियों की मौत के फरमान पर भले ही ब्रिटिश सरकार ने दस्तखत किये थे लेकिन इनकी मौत को अंजाम देने के लिए, अपने अपने स्वार्थ में मुखबरी हमारी नस्ल के पुरखों ने ही की थी।
1930 के दशक के अंत में जब नेता जी सुभाषचंद्र बोस को कांग्रेस से बाहर कर दिया गया था, तब इस नस्ल के ज्यादातर पुरखे गांधी के साथ ही खड़े थे। उनके लिए गांधी वर्तमान की सुनिश्चिता थी और सुभाषचंद्र बोस एक अनिश्चिता थी। इन ज्यादातर पुरखों ने, नेता जी को मौन समर्थन दिया था लेकिन इन्होंने गांधी, नेहरू पटेल की कांग्रेस से विद्रोह नही किया था क्योंकि उनके लिए सुभाष का मार्ग अनिश्चितिता और कष्ट का था। आज हम लोग नेता जी सुभाषचंद्र बोस की कसमें खाते है और पूरे कांग्रेस को कोसते है लेकिन हम यह भूल जाते है कि हमारे नस्ल की इस नपुंसकता या स्वार्थीत्वता की बड़ी कीमत सुभाषचंद्र बोस ने चुकायी थी। आज लोग उनके जर्मनी में हिटलर से मिलने और वहां बिताए दिन और फिर मलाया सिंगापूर आकार आज़ाद हिंद सेना को खड़ा होने के प्रयासों में जापानियों से हाथ मिलाने पर खूब अलोचना करते है लेकिन यह भूल जाते है कि सुभाषचंद्र बोस को हिटलर और जापान के तोजो से इस लिए मदद मांगनी पड़ी थी क्योंकि भारत में ही लोग उनके साथ खड़े हो कर युद्ध की विभीषिका में होम होने को तैयार नही थे। यह दस्तावेज़ों में दर्ज है कि सुभाषचंद्र बोस जर्मनी और जापान के शासकों को यही समझाते रहे की उन्हें 50,000 सैनिकों की सेना की जरूरत है जो भारत की सीमा तक पहुँच जाए क्योंकि उसके बाद भारत की जनता और ब्रिटिश सेना में शामिल भारतियों को यह विश्वास हो जायेगा की भारत आज़ाद हो जायेगा तो वह ब्रिटिश शासकों को छोड़ उनके साथ हो जायेंगे।
नेता जी का अपनी नस्ल के बारे में बिलकुल सही आंकलन था। यही हुआ था। जब वह सिंगापूर पहुंचे थे तब मलाया क्षेत्र पर जापानी सेना का कब्ज़ा था। उनको आज़ाद हिंद सेना में जब आदमी जुटाने हुए थे तो पहले उनकी नस्ल के वही भारतीय थे जो ब्रिटिश सेना में थे और उस वक्त जापान के युद्धबन्दी थे। उनका देखा देखी ही, दक्षिण पूर्व एशिया में बसे भारतियों ने आज़ाद हिंद में शामिल हुए थे। जब बर्मा के रास्ते नेताजी की आज़ाद हिन्द सेना ने मणिपुर के रास्ते आक्रमण किया था, तब नेता जी ने सही आंकलन किया था कि जब तक भारत की जनता और ब्रिटिश सेना के लिए लड़ रहे भारतियों को यह भरोसा नही हो जायेगा की आज़ाद हिंद सेना कलकत्ता के रास्ते पर है वह उनके साथ नही लड़ेगी। यह एक कटु सत्य है कि जब आज़ाद हिंद सेना को शुरवाती हार का सामना करने पड़ा था तब इसमें शामिल हमारी नस्ल के वीरों ने पाला बदल कर, ब्रिटिश सेना के सामने समर्पण करना ज्यादा उचित समझा था।
आज फिर भारत एक दोराहे पर खड़ा है जहाँ उसकी नस्ल के पास कष्ट से प्रणय कर के, भविष्य को सवारने का मौका है। इस बार हमारी नस्ल के एक ज़नूनी ने, लोकतान्त्रिक व्यवस्था की कमजोरियों को जानते हुए भी, विमुद्रिकरण और नोटबन्दी से क्रांति करने की कोशिश की है। लेकिन मुझे दुःख है कि आज भी 21वीं शताब्दी में हमारी नस्ल, इतिहास में दर्ज अपने पुरखों की गलतियों को स्वीकारने के बजाए, अपने अपने हिस्से के पापों को पुण्य घोषित कराने में लगी हुई है। यह बैंक से नये नोटों का लोगो के पास पहुंचना, यह पर्याप्त रुपये जेब में होने के बाद भी बार बार एटीएम से और निकाल कर रुपयों को अपने पास रखने का शौक और यह हर छोटे मझले व्यपारी का दिन रात काले धन को सफेद करने की कवायत और कुछ नही, यह हमारी नस्ल के मुखबिर है जिन्होंने पहले बिस्मिल,भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद को मरवाया था। यह वही लोग है जो 1857 के बाद ब्रिटिश शासन द्वारा, राजा, नवाब, रायबहादुर इत्यादि बनाय गये थे। यह वही लोग है जिनको क्रांतिकारियों से गद्दारी करने पर ब्रिटिश शासन द्वारा इनाम और इज़्ज़त बक्शी गयी थी। यह वही लोग है जिन्होंने सुभाषचंद्र बोस को काबुल, मोस्को से लेकर बर्लिन तक सोशलिज़्म के नाम पर बेचा था। यह वही लोग है जिन्होंने आज़ाद हिंद फौज की हार देखते हुए, पाला बदल कर, ब्रिटिश सेना के साथ हो लिए थे।
मुझे दुःख है की ऐसा हुआ है। मैं समझता हूँ की हमारी नस्ल का नँगा नाच एक चेतावनी है हम सबके लिए। आप हो या मैं हूँ, कोई भी हो, गलत करेंगे तो भुगतना पड़ेगा। आज समय तेज चल रहा है इसलिए अब अपनी गलितयों के परिणामो के लिए हमारी कई पढियो को इंतज़ार नही करना पड़ेगा क्योंकि आज गलती करने वाली पीढ़ी को परिणाम, खुद ही सामने देखने और भुगतने होंगे।
loading...
Previous Post
Next Post
loading...
loading...

0 comments: