शहर से 12 किलोमीटर दूरी लेकिन परंपरा चौंकाने वाली
मेरठ शहर से 12 किमी की दूरी पर स्थित बिजौली में गांववाले पिछले 200 सालों से इस परंपरा का निर्वहन करते आ रहे हैं। बुजुर्ग से लेकर नौजवान तक इस परंपरा में एक साथ होली पर इस खास मौके को एक अनूठे अंदाज में मनाते हैं। इस परंपरा में गांववासी अपनी मर्जी के अनुसार अपने शरीर को बींधते हैं। बिजौली गांव में हर साल दुल्हैंडी के दिन शाम को पूरे गांव में तख्त निकालने की भी परंपरा है।
दो सौ साल से जीवित है परम्परा
गांव के बड़े-बुजुर्ग बताते हैं कि 200 साल पहले गांव में एक बाबा रहने के लिए आए थे। उन्होंने होलिता दहन के अगले दिन यानि दुल्हैंडी पर इस परंपरा की पटकथा लिखी। उनके समय एक तख्त की शुरुआत हुई थी। ऐसी मान्यता है तभी से गांव में शरीर को बींधकर तख्त निकाले जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि अगर इन तख्तों को न निकाला जाए तो गांव में प्राकृतिक आपदा की संभावना रहती है। गांव में बाबा के निधन के बाद उनकी समाधि बना दी गई। उनकी समाधि पर ही मंदिर बना दिया गया है।
पूरे गांव में लगाई जाती है परिक्रमा गांव में पहले एक तख्त निकाला जाता था, लेकिन अब गांव में सात तख्त निकाले जाते हैं। एक तख्त पर तीन लोग अपने शरीर को बींधकर खड़े रहते हैं। वहीं एक आदमी उनकी देखभाल के लिए रहता है। इसी के साथ-साथ गांववासी होली के गीतों पर झूमते हुए बुध चौक से निकलता हुआ पूरे गांव की परिक्रमा लगाते हैं
जख्मों पर लगाते हैं होली की राख खाल में छुरी घोंपकर मुंह, पेट और बाजुओं के बीच देखकर कोई भी उन्हें देखकर हतप्रभ रह जाता है। होलिका दहन के एक दिन बाद होने वाले इस परंपरा से पहले बींधने वाले लोग अपने शरीर पर होली की राख लगाते हैं, जिससे जख्मों के दर्द को सहन किया जा सके। वहीं, जिस छुरी को बदन में घोंपा जाता है, उसका 15 दिन पहले आग में तपाकर जंग साफ किया जाता है।
रंग-बिरंगी वेशभूषा होती है खास आकर्षण तख्त पर बींधने वाले लोग रंग-बिरंगी वेशभूषा में तैयार रहते हैं। तख्त को भी साजो-सज्जा के साथ सजाया जाता है। इसके साथ ही पूरे गांव में परिक्रमा के समय गुड़, आटा, रुपये और चादर चढ़ाई जाती है। जितना भी चढ़ावा आता है, उसको गांव के मंदिर में चढ़ा दिया जाता है। वहीं इस परंपरा को देखने के लिए गांव से बाहर रह रहे लोग गांव जरुर आते हैं। इसके साथ ही कुछ सालों पहले विदेशी भी इस परंपरा को देखकर अचंभित रह गए थे।
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