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रोटी की लाचारी कहीं पदक जीतने वाले ,हाथों को मजबूर न कर दे हथियार उठाने के लिए ...

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वो विरोधी पर मुक्कों की बारिश कर उसे बेदम कर देता था. अपनी चपलता से सामने वाले को कुछ ही देर में घुटने टेकने को मजबूर कर देता था. अपने जीवट उसने कई बड़े अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में तिरंगे की आन-बान और शान को बढ़ाया. लेकिन आज वो डर रहा है. किसी विरोधी से नहीं बल्कि अपने आप से, अपनी नियति से, अपनी बेरोजगारी से. उसे डर सता रहा है इस बात का कि कहीं उसकी बेरोजगारी और परिवार के लिए दो रोटी जुटाने की चिंता इस कदर न तोड़ दे कि वो उन हाथों में हथियार उठाने के लिए मजबूर न हो जाए, जिन हाथों में कभी उसने देश के लिए न जाने कितने मेडल थामे थे. हम बात कर रहे हैं भारत के पहले प्रोफेशनल बॉक्सर धर्मेन्द्र सिंह यादव की.
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रोजी-रोटी के लिए संघर्ष करता देश का पहला प्रोफेशनल बॉक्सर 
जिस देश में एक ओलंपियन और कई बड़ी प्रतियोगिताएं जीतकर गौरव के शानदार लम्हे अर्जित करने वाला खिलाड़ी एक अदद नौकरी के लिए तरसे उस देश में खेल और खिलाड़ियों की भलाई के लिए बड़े-बड़े दावे करना सरकारों की नीयत और नियति दोनों पर सवाल खड़े करता है. खेलों के लिए हर साल अरबों का बजट बनता है, लेकिन इससे खेल या खिलाड़ी का कितना भला होता है, ये अगर जानना हो तो भारत के पहले प्रोफेशनल बॉक्सर धर्मेन्द्र सिंह यादव से बड़ा कोई उदाहरण नहीं हो सकता.
1990 वर्ल्ड चैंपियनशिप के सेमीफाइनल में पहुंचे थे धर्मेन्द्र 
बचपन से ही बॉक्सिंग को लेकर जुनून और विरोधियों पर पूरी चपलता से मुक्के बरसाने की चतुराई ने धर्मेन्द्र को अपने दौर का भारत का सबसे बड़ा मुक्केबाज बना दिया. कड़ी मेहनत और खेल को लेकर समर्पण ने जीवत भरे इस मुक्केबाज की जल्दी ही सफलता के शीर्ष पर भी पहुंचा दिया. विरोधियों पर धर्मेन्द्र के पंच जब पड़ते थे वो बचने के रास्ते तलाशने लगते थे. उनका दमदार पंच का ही असर था कि वे 1990 में विश्व युवा बॉक्सिंग चैंपियनशिप में सेमीफाइनल तक पहुंचने वाले भारत के पहले मुक्केबाज बने.
ब्रिट्स रैंकिंग में चौथे और पैन एशियन रैकिंग में सातवें नंबर तक पहुंचे 
एक बार सफलता का ये सिलसिला शुरू हुआ, तो हर बीतते दिन के साथ लगातार आगे बढ़ता ही गया. उन्होंने सैफ गेम्स, एशियन चैंपियनशिप, कॉमनवेल्थ गेम्स जैसे न जाने कितने टूर्नामेंट में भारत के लिए पदक जीते और पोडियम पर देश को गौरवान्वित होने का मौका दिया. ओलंपिक में भी भारत का प्रतिनिधित्व किया. वक्त के साथ धर्मेन्द्र सिंह यादव ने प्रोफेशनल बॉक्सिंग की तरफ कदम बढ़ाया. यहां भी सफलता का ऐसा सिलसिला चला कि अपने छह के छह मुकाबले जीते. तभी तो ब्रिट्स रैंकिंग में चौथे और पैन एशियन रैकिंग में सातवें नंबर तक पहुंचे. बॉक्सिंग में उनकी बड़ी उपलब्धि को स्वीकार करते हुए धर्मेन्द्र सिंह यादव को अर्जुन पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया. लेकिन कहते हैं न पुरस्कारों से शान तो बढ़ता है, लेकिन पेट नहीं भरता. धर्मेन्द्र के साथ भी यही हुआ. उन्हें तमाम पुरस्कार और सम्मान तो मिले, लेकिन खुद के और परिवार के भरन-पोशन के लिए एक अदद नौकरी के लिए संघर्ष करते दिखाई दे रहे हैं.
नौकरी के लिए लगाई गुहार 
अर्जुन अवार्डी धर्मेन्द्र के सामने पत्नी और दो बच्चों वाले परिवार को चलाने की मुश्किल चुनौती खड़ी है. बेरोजगारी के इस दौर में वो उन तमाम खेल संस्थानों और अधिकारियों के चक्कर लगाकर थक चुके हैं, जिन्होंने कभी उनकी पदक जीतने की कामयाबी को शान से अपने साथ जोड़ा था. लेकिन आज जब धर्मेन्द्र उनके दरवाजे तक एक अदद नियमित नौकरी की गुहार लेकर पहुंचते हैं तो नियमों का हवाला देकर उनकी बात को अनसुना कर दिया जाता है. ऐसी बेरुखी दिखाई जाती है, जैसे धर्मेन्द्र सिंह यादव देश की मुक्केबाजी का गौरव पुरूष नहीं कोई सड़क छाप इंसान हो
डर लगता है कहीं क्रिमिनल न बन जाऊं 
परिवार चलाने की मजबूरी और एक अदद नियमित नौकरी की जद्दोजहद ने धर्मेन्द्र को इस कदर तोड़कर रख दिया है कि वो कभी-कभी रोटी की मजबूरी में अपराध की तरफ कदम बढ़ाने के लिए सोचने को भी मजबूर हो जाते हैं. धर्मेन्द्र कहते हैं कि उन्हें अक्सर इस बात का डर सताता है कि कहीं उनकी यह लाचारी, उन्हें पूरी तरह से तोड़कर अपराध की तरफ न मोड़ दे.
कौन सुनेगा धर्मेन्द्र की फरियाद 
सवाल ये है कि आखिर कौन सुनेगा इस बेबस खिलाड़ी की फरियाद. सबका साथ, सबका विकास का दावा करने वाली वर्तमान सरकार की नजर क्या किसी खिलाड़ी की इस कदर तक की बेबसी की तरफ जाएगी ? क्या धर्मेन्द्र और उन जैसे अन्य लाचार खिलाड़ियों की तरफ खेल मंत्रालय की निगाहें रहमत होगी ? अगर धर्मेन्द्र सिंह यादव जैसे बड़े मुक्केबाज को एक अदद नौकरी नहीं मिलेगी तो भला आने वाली पीढ़ी खेलों में कदम रखने की तरफ हिम्मत कैसे कर पाएगी. फिर भला कैसे पूरा होगा भारत को खेलों की महाशक्ति बनाने का सपना. कैसे ओलंपिक पदकों से भरेगी हमारी भी झोली. खेल और खिलाड़ियों के विकास के लिए जरूरी है देश में ऐसा माहौल बनाने की जब खिलाडी रिटायरमेंट के बाद अपनी रोटी के इंतजाम के बारे में न सोचे, बल्कि सिर्फ अपने खेल और पदक जीतने पर ध्यान लगाए. उसे इस बात का भरोसा हो कि अगर आज वह देश के लिए पदक जीतने की खातिर खून-पसीना एक कर रहा है तो कल रिटायर होने के बाद उसके बारे में देश सोचेगा. उसको रोटी के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ेगा. तभी पदकों की संख्या न सिर्फ बढ़ेगी, बल्कि देश में खेल संस्कृति का भी विकास होगा.

विकास कृष्ण यादव को दी कोचिंग 
धर्मेन्द्र जैसे खिलाड़ी देश की शान हैं. उन्हें सहेज कर रखने की जरूरत है न कि रोटी के लिए संघर्ष की राह पर छोड़ देने की. रिटायरमेंट के बाद भी वे देश के लिए बड़े काम के साबित हो सकते हैं. यकीन न हो तो मुक्केबाज विकास कृष्ण से पूछ लीजिए, जिन्होंने रियो ओलंपिक से पहले खेल मंत्रालय से धर्मेन्द्र सिंह यादव को कुछ दिनों की कोचिंग के लिए मांगा था. धर्मेन्द्र ने विकास को उस छोटे से ही दौर में इतना गुरु ज्ञान दे दिया कि विकास रियो ओलंपिक के क्वार्टर फाइनल तक पहुंचे. जाहिर है कि धर्मेन्द्र सिंह यादव जैसे अनुभवी खिलाड़ियों का इस्तेमाल अगर भारतीय खेल प्राधिकरण स्थाई नौकरी देकर कोच के तौर पर करे तो आनेवाले दिनों में भारतीय मुक्केबाजी की दिशा और दशा बदल सकती है. तो क्या जल्दी ही भारतीय खेल प्राधिकरण और खेल मंत्रालय का ध्यान धर्मेन्द्र की तरफ जाएगा और उन्हें एक स्थाई नौकरी देकर उनके अनुभव का इस्तेमाल भारतीय मुक्केबाजी की भलाई के लिए किया जाएगा?

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