
मानव जीवन में प्यार को एक ऊँचा दर्जा दिया गया है। प्यार ही सब कुछ है लेकिन जब प्यार में अश्लीलता आ जाती है तो प्यार का मतलब ही बदल जाता है। इसके बिना जीवन व सृष्टि की शाश्वतता की कल्पना भी असंभव है लेकिन प्रेम के नाम पर अश्लीलता का भोंडा प्रदर्शन करना किसी भी तरह से उचित नहीं है।
प्रेम-प्रदर्शन की सीमायें:
एक प्रजातांत्रिक देश में क़ायदे-कानून को ध्यान में रखकर ही हम सेवा, व्यापार अथवा उद्योग द्वारा पैसा कमा सकते हैं अन्यथा वह कमाई ग़ैरकानूनी व अनैतिक मानी जाएगी और ग़ैरकानूनी कार्य के लिए दण्ड भी दिया जा सकता है। इसी प्रकार काम अथवा प्रेम या प्रेम-प्रदर्शन की भी समाज, संस्कृति या कानून द्वारा सीमाएँ निर्धारित हैं।

प्रेम मानसिक अवधारणा:
प्रेम मानसिक अवधारणा है जबकि काम शारीरिक। प्रेम का प्रदर्शन तो हम कर सकते हैं लेकिन वह दिखलाई कहाँ पड़ता है? वह तो करने वाले की अनुभूति होती है लेकिन काम क्रीड़ा एक शारीरिक प्रक्रिया है जिसमें समय और स्थान की मर्यादा का पालन अनिवार्य है।
प्रेम नहीं, कामुकता का प्रदर्शन:
जिसे हम प्रेम-प्रदर्शन कहते हैं वह वास्तव में प्रेम नहीं, कामुकता का प्रदर्शन होता है। काम-चेष्टाएँ प्रदर्शन की नहीं, एकांत की क्रियाएँ होती हैं अत: उनका सार्वजनिक स्थलों पर ही नहीं, अन्य किसी के भी सामने प्रदर्शन करना अशालीन, अश्लील व अशोभनीय है।
बेडरूम की क्रियाएँ:
काम-चेष्टाओं, अंग-प्रदर्शन व नग्नता के प्रदर्शन एक मनोविकृति भी है। असंवैधानिक न होते हुए भी अनैतिक व अस्वाभाविक ज़रूर है। भोजन रसोईघर में बनता है, स्नान स्नानागार में किया जाता है तथा शौचादि के लिए शौचालय में ही जाते हैं तो बेडरूम की क्रियाएँ सार्वजनिक स्थलों पर करने का क्या औचित्य है?
ना करें सार्वजनिक प्रदर्शन:
काम जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है लेकिन सार्वजनिक रूप से ही नहीं, गुप्त रूप से भी इसके व्यावहारिक प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था समाज व संस्कृति में नहीं है तो फिर काम का सार्वजनिक प्रदर्शन कैसे स्वीकार्य हो सकता है।
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