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श्री सालासर बाला जी की प्राचीन कथा...

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# भारत कि जनता श्री हनुमानजी को गाँव देवता व् जन देवता मानती है! राजस्थान में जयपुर – बीकानेर राजमार्ग पर सीकर के पास लछमनगढ़ से 30 किलोमीटर की दूरी पर सालासर गाँव में हनुमानजी की विशेष मान्यता है! वहाँ पर श्री हनुमानजी का एक सिद्ध पीठ मंदिर है, जिसकी सालासर में ‘बालाजी’ के नाम से लोक प्रसिद्ध है !
# भक्त प्रवर श्री मोहन दास जी इस मंदिर के संस्थापक थे! भक्त मोहन दास जी की बहन कान्ही का विवाह सालासर के प. सुखराम से हुआ था! इनका एक बेटा उदय पैदा हुआ, लेकिन पांच वर्ष बाद हे प. सुखराम का अचानक निधन हो गया! विधवा बहन और भांजे उदय राम को सहारा देने के लिए मोहन दास जी अपना पैतृक गाँव छोड़ कर सालासर आकार इनके साथ रहने लगे! श्री मोहन दास जी बचपन से श्री हनुमानजी के परम भक्त थे !
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# एक दिन मोहन दास जी अपने भांजे के साथ खेत में काम कर रहे थे कि हनुमानजी ने प्रकट होकर उन्हें कृषि कार्यों से विरत होने को कहा और मोहन दास जी के हाथ से गंडासी छीन कर दूर फेंक दी, जिसे दूर खड़ा उदय राम भी देख रहा था! शाम को इसी घटना का जिक्र उदय ने अपनी माँ से किया तथा कहा कि मामा का मन आजकल कृषि कार्यों में नहीं लगता! बहन के मन में आया कि मोहन को वैवाहिक बंधन में बाँध देना चाहिए लेकिन बहन कि लाख कोशिशों के बावजूद मोहन दास जी ने शादी नहीं की! एक दिन कान्ही अपने घर में मोहन दास जी और उदय को भोजन करा रही थी कि दरवाजे पर किसी साधु ने आवाज दी! कान्ही जब आटा लेकर दरवाजे पर गई तो वहाँ कोई नहीं था! उसके वापिस आने पर मोहन दास जी ने बताया कि वे स्वयं बालाजी थे!

#  कान्ही ने भाई से प्राथना की कि मुझे भी बालाजी के दर्शन करवाइए! मोहन दास जी ने हामी भर ली! इस बार मोहन दास जी स्वयं गए और बहुत निवेदन करके बालाजी को वापिस लाये, वह भी इस शर्त पर की ‘खीर-खांड युक्त चूरमे का भोजन कराओ और पवित्र आसन पर बिठाओ’! मोहन दास जी ने स्वीकार कर लिया! सेवा से प्रसन्न होकर श्री बालाजी ने वरदान दिया कि “कोई भी मेरी छाया (आवेश) अपने ऊपर धारण करने की चेष्टा नहीं करेगा! श्रद्धापूर्वक जो कोई भी मुझे याद करेगा मैं उसकी सहायता करूँगा और मैं निरंतर सालासर में विराजमान रहूँगा!” ऐसा कहकर श्री बालाजी अंतर्धान हो गए!
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# संवत १८११ श्रावण मास में सूर्योदय के समय एक दिन, जिला नागौर के लाडनू के पास, असोटा ग्राम में एक जाट अपने खेत में हल जोत रहा था कि जमीन से शिलाखंडित मूर्ति निकली, पर प्रमादवश जाट ने कोई ध्यान नहीं दिया! फलस्वरूप वह उदरशूल से पीड़ित हो गया और लेट गया! दोपहर को जब उसकी पत्नी भोजन मेकर आई तो जाट ने सारी कथा कह सुनाई! जाटनी समझदार थी! उसने अपने आँचल से मूर्ति को साफ़ किया तो उसको शिलाखंड में श्री मारुतिनंदन की झांकी दृष्टिगोचर हुई! अब उसने श्रद्धापूर्वक उस मूर्ति को एक वृक्ष के निचे स्थापित कर चूरमे का भोग लगाया और श्री बालाजी का ध्यान किया! चमत्कार यह हुआ कि जाट स्वस्थ होकर उठ बैठा और काम करने लगा! इस घटना को सुन कर जनसमुदाय उमड़ पड़ा!
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#  असोटा ग्राम के ठाकुर भी मूर्ति के दर्शनार्थ आये और मूर्ति को महल में ले गए, किन्तु कुछ लोगों का मानना है कि मूर्ति उनके महल में भेज दी गई! रात्रि को श्री हनुमानजी ने स्वपन में प्रकट होकर ठाकुर को उस मूर्ति को शीघ्र सालासर पहुँचाने का आदेश दिया! सवेरा होते ही ठाकुर ने आदेशानुसार बैलगाडी में उस मूर्ति को अपने निजी सेवकों कि निगरानी मिएँ सालासर के लिए रवाना कर दिया और स्वयं भी दूसरे रथ में बैठकर साथ गए! ये दोनों रथ आज भी मंदिर में सुरक्षित रखे हुए है! उसी रात्रि भक्त मोहन दास जी को भी श्री हनुमानजी के दर्शन हुए! उन्होंने अपने भक्त से कहा कि –“तुम्हे दिए गए वचनानुसार में असोटा ग्राम के ठाकुर द्वारा भेजी जा रही मूर्ति के रूप में तुम्हारे पास आ रहा हू!”
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# सालासर पहुँचकर ‘मूर्ति कि स्थापना’ के स्थान के चयन को लेकर कुछ समस्या आई! तब श्री मोहन दास जी ने कहा कि रथ के बैलों को स्वतंत्र सहोद दिया जाए और जहाँ बैल स्वतः रुकें उसी स्थान पर मूर्ति कि स्थापना कर दी जाए! ऐसा ही हुआ! बैल एक तिकोने टीले पर जाकर रुक गए और उसी दिन श्रावन शुक्ल नौंवी ,संवत १८११ ईसवी सन् १७५४ शनिवार के दिन. परम तपस्वी श्री मोहन दास जी के मार्ग-दर्शन में उसी टीले पर शिलाखंड-मूर्ति को स्थापित कर दिया गया! संवत १८१५ में मिटटी एवं पत्थर से इस मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ! थोड़े हे दिनों में श्री बालाजी एवं मोहन दास कि ख्याति दूर दूर तक फ़ैल गई! समय पाकर जैसे जैसे श्रधालु भक्तों कि मनोकामनाएं पूर्ण होती गई वैसे वैसे मंदिर भी विशाल बनता गया! आज २४४ वर्षों बाद इस मंदिर कि दीवारें चांदी कि भव्य मूर्तियों और चित्रों से सुसज्जित है! आज श्री सालासर में बालाजी का यह मंदिर लोक विख्यात है!
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