नई दिल्ली: आजकल जब हिंदी फिल्मों में सुखदायक और मजबूत सूफी गानों को मुश्किल से ही सुना जाता है तो ऐसे में फिल्मकार-कवि मुजफ्फर अली कहते हैं कि संगीत की इस विधा को बढ़ावा देना बॉलीवुड की जिम्मेदारी नहीं है.
तीन दिवसीय संगीत कार्यक्रम ‘जहान-ए-खुसरो’ के संयोजक 72 साल के कलाकार ने कहा कि वह खुश हैं कि हिंदी फिल्में सूफी गानों में निहित दार्शनिक अंदाज ढूंढने की कोशिशें कर रही है लेकिन यह सब जानते हैं कि वे पैसा कमाने के लिए ऐसा कर रही हैं.
उन्होंने कहा, ‘‘बॉलीवुड को सूफी संगीत को बढ़ावा क्यों देना चाहिए? यह उसका एजेंडा नहीं है और किसी तरह वैसा नहीं किया जाना चाहिए. वे कर रहे हैं, ये अच्छी बात है. कम से कम लोग किसी न किसी रूप में संगीत की इस शैली को अधिकाधिक स्वीकार कर रहे हैं.’’
उन्होंने कहा, ‘‘लेकिन यह भी स्पष्ट है कि वे कमर्शियल कारणों से यह कर रहे हैं. वे पर्दे के लिए हैं. और जब वह पर्दे पर होता है तो वह हृदय का विषय नहीं रह जाता.’’ यह संस्कृतिकर्मी महसूस करते हैं कि फिल्मों के माध्यम उन लोगों के लिए हैं जो अधीर हैं तथा ‘जहान-ए-खुसरो’ का लक्ष्य वे लोग हैं जो दूसरे स्तर पर सूफी संगीत से जुड़ते हैं.
उन्होंने कहा, ‘‘यह उत्सव उन लोगों के लिए है जो आध्यात्मिक वातावरण ढूंढ़ रहे हैं. फिल्में क्या कर रही हैं, मैं उसका असम्मान नहीं कर रहा लेकिन उसमें बहने वाला भी नहीं हूं.’’
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